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तेरी जां में मेरी जां फनां हो जाये

आहत हृदय
आहत हृदय
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तेरी जां में मेरी जां फनां हो जाए…….

किसी व्यक्ति के जीवन में सबसे बडा फैसला शायद यह होता है कि वह अपना जीवनसाथी किसे चुनता है।यह एक उचित फैसला,किसी व्यक्ति की शेष जिंदगी को खुशहाल तो एक गलत फैसला घूंट-घूंट कर जिंदगी जीने को मजबूर कर देती है।विडंबना यह है कि सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के बाद भी देश के 85 से 90 फीसदी युवा यह महत्वपूर्ण फैसला स्वयं न करके अपने अभिभावकों की पसंद पर अपना समर्थन देते हैं।अफसोस इस बात की है कि जिस लडकी को उसके अभिभावक अजनबियों से बात करने तक को मना करते हैं,उसे एक दिन अपरिचित से ही ब्याह दिया जाता है।इसके बाद उस लडकी की शेष जिंदगी कैसे गुजरती है,यह तो लडकी ही जान सकती है।लेकिन अगर ससुराल से शिकायत भी आती है तो घरवाले लडकी को ही अपना व्यवहार सुधारने की सीख दे देते हैं।यह सोचने वाली बात है कि एक व्यक्ति 18 वर्ष की अवस्था में एक नागरिक का दर्जा प्राप्त कर महत्वपूर्ण राजनीतिक अधिकार प्राप्त कर लेता है,उसे अपने जीवनसाथी के चुनाव का अधिकार क्यों नहीं मिलता?मिलना चाहिए।इसमें बुराई ही क्या है?किसी की पसंद,नापसंद को नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता है।अगर पति-पत्नी में प्रेम न हो तो जीवन में खुशियों के लाले पड जाऐंगे एवं आने वाली पीढियां भी असभ्य पाठ की पतित शिक्षा पाऐंगे।मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह लगता है कि युवकों को ऐसे अधिकारों की स्वतंत्रता देने पर असमय होने वाले विवाह-विच्छेद व तलाक जैसी कुप्रथाओं में निश्चित रुप से कमी आएगी।एक जान-पहचान के व्यक्ति को अपना जीवनसाथी बनाना बेहतर है बनिस्बत एक अजनबी के साथ शेष जिंदगी बिताने के कठोर फैसले से।हालांकि अब पढे-लिखे नौजवान स्वावलंबी होकर अपनी पसंद(प्यार) के साथी के साथ विवाह करने की इच्छा को अभिभावकों की रजामंदी पर उनकी स्वीकृति प्राप्त कर रहे हैं,जो अच्छी बात है।यह होनी भी चाहिए।
यह मनुष्य का सामान्य मनोविज्ञान है कि वह एक ऐसे विपरीत लिंग वाले व्यक्ति से ब्याह करना चाहता है,जो सुंदर व स्वस्थ हो।यह स्वाभाविक है कि आपके इस चयन पर पूरे समाज की नजरें रहती है।असंतोषजनक फैसले पर दोस्तों,रिश्तेदारों द्वारा कल दिन आप उपहास के पात्र बन सकते हैं।ऐसे में शारीरिक व्याधियों का दंश झेल रहे लडकी या लडकों को अपना जीवनसाथी बनाने के लिए पवित्र मन और अदम्य साहस की आवश्यकता होती है।और जो ऐसा कर लेता है,वह संवेदनशीलता और समानुभूति की पराकाष्ठा को छू लेता है।इस कठोर फैसले का चयन करते हुए व्यक्ति में मनुष्यता के तत्व हावी हो जाते हैं जबकि समाज उस समय गौण हो जाता है।
झारखंड के बोकारो की रहने वाली सोनाली सुखमय जीवन व्यतीत कर रही थी।न किसी से बैर और ना ही किसी से झगडा-झंझट।प्रकृति की लीला देखिए;जब वह ब्याह करने की अवस्था में थी तभी हमारे ही समाज के कुछ दरिंदों को उसकी खुशियां नागवार गुजरी और उचित-अनुचित के फैसले के बिना मस्तिष्क पर हावी दरिंदगी ने सोनाली पर तेजाब फेंकने पर मजबूर कर दिया।कोमल शरीर,विशेषकर चेहरे पर तेजाब का हमला झुलसाने में तनिक भी देर न लगी।चिखती,तडपती घर पहुंची यह लडकी मृतप्राय हो गयी।घरवालों के सहयोग के बाद उसका इलाज तो चलता रहा लेकिन अब अपना ही चेहरा उसे अजनबियों-सा लगने लगा।चेहरे की सुंदरता किसी लडकी के लिए अधिक अहमियत रखता है।अपने सपनों के राजकुमार के लिए ही तो लडकियां सैकडों रुपये खर्च कर सजना-संवरना करती रहती है।इस घटना के बाद माता-पिता एवं स्वयं सोनाली के सपने पलभर में ही धाराशायी हो गये।जिंदगी मानो ठहर-सी गयी।जीवन का प्रतिपल एक असहनीय टिस देता रहा।मदद के लिए वह प्रशासन से गुहार लगाती रही।वह स्वयं को बोझ समझने लगी।एक सुखमय क्षण की प्राप्ति भी एक सपना लगता था तो शादी-ब्याह की बात किसी परिकल्पना से कम नहीं थी।घरवालों और स्वयं सोनाली ने यह आस लगाना ही छोड दिया था कि अब उसकी शादी हो भी पाएगी।लेकिन नहीं!किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।चित्तरंजन तिवारी नाम के एक साफ्टवेयर इंजीनियर ने सोनाली का हाथ थामकर मानो एक नव-सृजित शरीर में आत्मा का प्रवेश करा दिया।आज लोग उसके फैसले की तारीफ करते हैं।कितना बडा दिल होगा उस लडके का जिसने समाज की परवाह किए बगैर इतना बडा फैसला लिया।शायद ऐसे ही लोग फरिश्ता कहलाते हैं।क्षीण होते सामाजिक मूल्यों के अंधेरे वातावरण में चित्तरंजन ने उम्मीद की एक किरण जगा दी है।दूसरी कहानी झारखंड के गिरिडीह के दिनेश की है।आज यह युवक स्थानीय अखबारों की सुर्खियां बटोर रहा है।विवाह के लिए उनके एक कठिन फैसले से घरवाले दंग रह गये।माता-पिता के सपने माने टूट से गये।इस युवक ने चित्तरंजन-सोनाली से प्रभावित होकर एक उदास पडी बगिया में खुशी के दो फूल खिला दिये।सावित्री नाम की जन्मजात अंधी लडकी से ब्याह कर दिनेश ने उनकी अंधेरी जिंदगी में उम्मीद की किरणें जगा दी।बकौल सावित्रीमैंने कभी सपने में भी यह नहीं सोचा था कि मेरी शादी भी होगी लेकिन दिनेश ने मुझ जैसे अभागिन पर उपकार किया है।निश्चय ही मैं आंखों से अंधी हूं लेकिन अब मुझे दिनेश की दो आंखें मिल गयी है।शेष जिंदगी अब मैं निश्चिंतता के साथ गुजार सकती हूं।दिनेश के इस कठिन फैसले से घरवालों की उम्मीद टूट गयी।निराश होकर उन्होंने सुरेश को घर से निकाल दिया।हो सकता है आज या कल उसके परिवार उसे स्वीकार कर ले लेकिन दिनेश के हौसले बुलंद हैं।अपने निर्णय पर वह खुश है।इसकी कहानी फनां फिल्म के दृश्यों को बार-बार जेहन में ला रही थी।दुआ है कि इस खुबसूरत जोडी पर किसी की नजर ना लगे।
ये दो घटनाएं सशक्त झारखंड की तस्वीर पेश कर रहा है।इस घटना ने देश को एक नई दिशा दी है।इन दोनों दिलवाले युवकों की जिंदादिली से प्रभावित होकर अनेक युवा ऐसे पुनित कार्य की ओर हाथ बढाते हैं तो हमारा पतनशील समाज,परिवर्तन की एक नयी गाथा लिखेगा।शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त लोगों को बेपनाह प्यार की आवश्यकता होती है।वे ईश्वर के सबसे करीब होते हैं।उनकी पुकार सबसे पहले ईश्वर के पास पहुंचती है।उनकी दुआएं सीधे जन्नत की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करती है।उनकी समस्याओं को धारण कर हरपल खुशियों से सराबोर करने के लिए हिम्मत और जिंदादिली की आवश्यकता होती है।क्या आप उसे जीवनभर प्यार दे पाएंगे?यदि हां!तो समझ लीजिए आपसे बडा फरिश्ता जहां में कोई ओर नहीं।
अंत में,
फनां फिल्म का वो बेहतरीन नज्म याद है आता है-तेरे दिल में मेरी ससों को पनाह मिल जाए…तेरे इश्क़ में मेरी जां फना हो जाए,तेरी जां में मेरी जां फनां हो जाए…….

लेखक:-
सुधीर कुमार
छात्र:-बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
आवास-राजाभीठा, गोड्डा

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