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कोई गरीबों की भी सुनो

आहत हृदय
आहत हृदय
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भारत में गरीबी दूर करने के लंबे समय से प्रयास किये जा रहे हैं।प्रायः हरेक चुनावों में सभी राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में यह ज्वलंत मुद्दा प्रमुखता से शामिल भी रहता है।लेकिन कड़वी सच्चाई यह भी है कि आज भी देश की एक तिहाई आबादी गरीबी से अभिशप्त हैं।गरीबी दूर करने के तमाम दावों,वादों और घोषणाओं के बीच कभी भी समिति,आयोग और रिपोर्ट से बाहर निकलकर गरीबी दूर करने के धरातलीय प्रयास नहीं किये गये।नतीजतन,भारत में गरीबी इसकी अनुगामी विशेषता बन कर रह गयी है।यही कारण है कि आम आदमी गरीबी के कुचक्र में अपने सुनहरे सपने को निर्दयता से कुचलता देख बदजुमानी खड़ा रहने को मजबूर है।समस्या यह भी है कि हम गरीब किसे मानें?विभिन्न संस्थाओं द्वारा समय-समय पर गरीबी तय करने के जो आधार मापदंड प्रस्तुत किये जाते हैं,क्या वो सही हैं या बस गरीबों के साथ मजाक मात्र है!क्योंकि देश का दुर्भाग्य यह भी है कि यहां गरीबी की परिभाषा वे चंद लोग तय कर रहे हैं जो वातानुकुलित कमरों में बैठ मिनरल वाटर के साथ दर्जनों लजीज व्यंजनों का स्वाद लेते हैं।विडंबना यह भी है कि जो व्यक्ति लाखों की थाली मिनटों में चट कर जाता है,वो एक बार के गरीबों के थाली की कीमत पांच तो कभी बारह रुपये आंकता है!भला!वो क्या जानेंगे गरीबों के पेट की आग की धधक?जिनके पैरों में कांटे चुभते हैं,उसका दर्द तो वही बता सकता है।इसलिए गरीबों की परिभाषा तो उन गरीबों से पूछी जानी चाहिए जो इसकी मार झेल रहा है।गरीबी उतनी बड़ी समस्या भी नहीं कि समाधान भी ना हो लेकिन इस दिशा में ना सिर्फ राजनेताओं बल्कि आम गरीब लोगों में भी इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है।वैसे तो हमारे राजनेता गरीबी दूर करने के दर्जनों मूलमंत्र अपनी उंगलियों में गिना देते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जब सत्ता की चाबी हाथ में आ जाती है तो उसके शब्द, अंदाज और दृष्टिकोण बदल जाते हैं।दूसरी तरफ,गरीबी में जी रहे लोग मेहनत करना नहीं चाहते हैं।बस बैठे-बैठे रोटी खाने की आदत पड़ गयी है।अपने को गरीब कहना या स्वीकारना ही तो सबसे बड़ी गरीबी है।आखिर कब तक अपने आप को गरीब होने की नियति मान कर चलेंगे!गरीबी किसी मानव की नियति नहीं है वरन् काम न करने की कोशिश करना ही सबसे बडी मूर्खता है।लेकिन एक बात स्पष्ट है कि कर्म छोड़कर भाग्य पर अत्यधिक निर्भरता इन्हें दिनोंदिन गरीबी की गर्त में धकेलता रहता है.लेकिन करे भी तो क्या?कोई राह दिखाना भी तो नहीं चाहता।चुनाव आता है तो नजरें बाट जोहती है कि कोई तो रहनुमा आएगा जो इस वर्ग की डूबती नैया को पार लगाने में मदद करेगा.लेकिन यह सपना,एक सपना बनकर रह जाता है.सरकार ने ढेरों कल्याणकारी योजनाएं तो बनायी हैं.लेकिन देश के अंतिम व्यक्ति तक यह सुविधा पहुंच नहीं पा रही है.यहीं से गरीबों का सरकार के प्रति विश्वास कमजोर होने लगता है.घर में ऐसी विकट स्थिति होती है कि वे चाहकर भी अपने बच्चों को स्कूल भेज नहीं पाते हैं.भला पेट से भी बड़ा कोई काम होता है क्या!सच कहें तो ये लोग,सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाते-लगाते परेशान और बीमार हो जाते हैं.दर्द से पैर फुल जाते हैं,भूख भी मर जाती हैं.फलाना कागज बनाओ,चिलाना के पास जाओ.घर आओ तो बीवी-बच्चों की आकांक्षाओं का बोझ.दैनिक जीवन की स्थिति जिंदा लाश के समान हो जाती है.यह कैसी विडंबना है कि इन गरीब लोगों के तन पर ना कपड़े हैं और ना ही पैरो में जुते;जबकि ये लोग इसे अपनी मेहनत से बनाते हैं जबकि इन सभी चीजों का उन लोगों के पास कोई कमी नहीं हैं जो इसे खुद नहीं बनाते हैं।जरुरी यह है हमारे बैठकबाज लोग सिद्दांतकार नहीं व्यवहारिक बनकर गरीबी को देखें और फिर इस दिशा में सार्थक पहल की जाय।हमारी सरकार भी केवल जनवितरण प्रणाली की दुकानों में सस्ती दरों पर अनाजों का वितरण करा देना ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ बैठते हैं।गरीबी दूर करने के लिए ठोस प्रयास की जरुरत है।और यह संभव होगा देश की आर्थिक मजबूती और योजनाओं के उचित कार्यान्वयन से।भारतीय समाजों में वर्षों से फैली अशिक्षा,बेरोजगारी,जागरुकता तथा बढ़ती जनसंख्या के प्रबंधन के अभाव के कारण गरीबी दूर नहीं हो पा रही है।अतः सबसे पहले इन समस्याओं से निजात दिलाने हेतु सतही प्रयास किये जायें।हम तो यही आशा करते हैं कि परमात्मा के घर देर है अंधेर नहीं….

सुधीर कुमार
Student:-
Banaras Hindu University,Varanasi
From:-Rajabhitha,Godda,Jharkhand

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