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नैतिक पतन के कारण बढ रहे हैं दुष्कर्म के मामले
मानव की विभिन्न प्राणीशास्त्रीय आवश्यकताओं में यौन संतुष्टि एक आधारभूत आवश्यकता है।चिकित्सा विज्ञान ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है कि यौन इच्छाओं की पूर्ति स्वस्थ जीवन की अनिवार्यता है।शास्त्रों में उल्लिखित मनुष्य के चार पुरुषार्थों में ‘काम’ का भी उचित स्थान है।प्राचीन काल से ही इस संबंध में कुछ सामाजिक और धार्मिक नियम भी बनाए गए हैं।लेकिन परेशानी इस बात की है कि आज लोग अपने सामाजिक कर्तव्य और पारिवारिक जिम्मेदारी का लोप कर अनुचित व अनैतिक रुप से यौन संतुष्टि को प्राथमिकता दे रहे हैं।जो सरासर गलत है।इससे समाज के लोगों में नैतिक दिवालियापन होने का खतरा बढ रहा है।बीते कुछ वर्षों में बलात्कार व दुष्कर्म की खबरों ने देशवासियों को उद्वेलित किया है।यह हम मानवों की आदिम मनुष्यों से भी बदतर स्थिति को इंगित करता है।कुत्सित मानसिकता से ग्रस्त इन कुकर्मियों को ना उम्र का लिहाज है ना समाज की मर्यादा का ख्याल।अपनी हवस की पूर्ति के लिए पल भर में ही सामाजिक मूल्यों,प्रतिमान व संस्कार को ताख पर रख दिया जाता है।यही कारण है कि आज समाज की बहु-बेटियां हर तरफ और हर समय खुद को असुरक्षित महसूस कर रही हैं।कभी पराए तो कभी अपने ही हैवानियत पर उतर आते हैं।सवाल यह है कि यौन इच्छा की पूर्ति का साधन कैसा हो?मानव सभ्यता के विकास के प्रथम चरण में समाज में यौन साम्यवाद का सिद्धांत प्रचलन में था;जहां यौन संबंध बनाने के लिए किसी तरह का बंधन नहीं था।जानवरों की भांति लोग किसी के साथ भी अपने यौन इच्छा की पूर्ति करते थे।परंतु समय बीतने के साथ-साथ लोगों में बुद्धि व विवेक का विकास हुआ और एक सामाजिक व्यवस्था अस्तित्व में आई।अब यौन संतुष्टि के लिए परिवार और विवाह की अवधारणा प्रकाश में आयी है।ये संस्थाएं मनुष्य के पारिवारिक जीवन में प्रवेश कराने की सामाजिक व धार्मिक स्वीकृति प्रदान करती है।फिर ऐसी भूल क्यों?क्यों संसार के सबसे विवेकशील प्राणी होने के बाद भी हम ऐसे कुकृत्य के भागी बनते हैं।अब तो हर शहर में दुष्कर्म की घटनाएँ आम हो चुकी हैं।क्या कुंभकर्ण की नींद सोयी हमारी सरकार इसे अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन देती है या हमारी सुस्ततम न्याय प्रणाली दुष्कर्म जैसी कुरीतियों को अनचाहे रुप से प्रश्रय दे रही है।यह एक सोचनीय प्रश्न है।समस्या यह भी है कि आज जनदबाव के कारण बडे शहरों में चंद फास्टट्रैक अदालतों की स्थापना की गयी है,लेकिन देश की आबादी का लगभग 70 फीसद जनसंख्या को धारण करने वाले गांवों में इसकी पहुंच ना होना,दुष्कर्मियों पर खौफ पैदा करने में असमर्थ है.इधर,हमारा सामाजिक परिवेश दिनोंदिन बदलता जा रहा है.संयुक्त परिवार के विखंडन के कारण बच्चे परंपरागत पालन-पोषण से दूर हो गये हैं.स्थिति ऐसी कि आज के कथित रुप से आधुनिक बच्चे अपने माता-पिता या दादा-दादी के पास जाकर बात करने की बजाय सोशल मीडिया पर चैटिंग करना पसंद करते हैं.बेशक,नैतिक शिक्षा को एक विषय के रुप में पाठ्य पुस्तक में शामिल करने की चर्चाएँ तेज हैं लेकिन क्या यह काफी है?क्या इसकी शुरुआत मानव जीवन के प्रथम पाठशाला यानी घर से नहीं की जानी चाहिए?विगत एक दशक में हमारे समाज मैत्रीपूर्ण व सहयोगी वातावरण के स्थान पर निर्मित घिनौने व विषैले वातावरण में समाज की बहु-बेटियों के आबरु की सुरक्षा एक बडी जिम्मेदारी है।कभी झांसा देकर,बहलाकर तो कभी जबरदस्ती महिलाओं को प्रताडित किया जाता रहा है।हद तो तब हो जाती है जब छोटी बच्चियों से लेकर वृद्धा तक इनके हवस के शिकार होती हैं।क्यों आज हम स्त्रियों को केवल भोग की वस्तु समझते हैं?वे हमारे समाज के अभिन्न अंग हैं।उनके सहयोग के बिना समाज कतई आगे नहीं बढ सकता है।पुरुष होने का हम दंभ ना भरें बल्कि स्त्रियों की सुरक्षा का संकल्प लें तो एक आदर्श समाज की स्थापना संभव है।
सुधीर कुमार,
छात्र:-बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी
घर-राजाभीठा,गोड्डा,झारखंड
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