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बदलते वक्त के साथ बदली दीवाली…
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पर्व,त्योहारों का हिन्दू दैनंदिनी में समय-समय पर दस्तक देना भारतीय समाज की प्रमुख विशेषता रही है.इन पर्व-त्योहारों में निहित संदेशों से इसकी महत्ता स्पष्ट होती है.हां,बदलते समय के साथ पर्व-त्योहारों को मनाने के तरीकों में भी बडा बदलाव आया है.बतौर उदाहरण,दीवाली को ही ले लीजिए.इसमें निहित शुचिता,स्वच्छता व मितव्ययिता की बातें दिन-ब-दिन गायब होती जा रही है.आज यह बस पटाखों की आतिशबाजी,प्रदूषण और फिजूलखर्ची तक ही सीमित रह गई है.यह पर्व स्वच्छता का प्रतीक भी है,इसलिए दीवाली से पूर्व हम अपने घर व आसपास की साफ-सफाई तो करते हैं लेकिन दूसरे ही दिन पटाखों के फटे अंश हमारी मेहनत का सत्यानाश कर देते हैं.कानफाडू पटाखों से एक तरफ पूरा वायुमंडल धुंध से ढक जाता है,तो दूसरी तरफ उसकी गूंज और होने वाले प्रदूषण से बच्चे,बीमार व बुजुर्गों को सांस लेने में तकलीफ होने लगती है.
एक दौर था जब दीवाली आते ही स्थानीय हाट और बाजार मिट्टी के दीये और अन्य आवश्यक सामग्रियों से पट जाते थे.दीवाली के दिन मिट्टी के दीये में मिट्टी तेल या घी से भींगे कपडे के कतरन से जलने वाली लौ सम्पूर्ण पृथ्वी को शुद्ध कर देती थी.दीवाली के दिन मिट्टी के दीये जलने से न सिर्फ गौरवशाली संस्कृति का आभास होता था बल्कि बरसात के बाद पनपने वाले कीडे-मकोडे का खात्मा भी हो जाता था.लेकिन समय बीतने के साथ इसमें बडा परिवर्तन आया है.वैश्वीकरण के बाद भारतीय बाजारों में चाइनीज उत्पादों की भरमार हो गई है.बेशक,ये उत्पाद अपेक्षाकृत सस्ते,आकर्षक व टिकाऊ हैं लेकिन ‘स्वदेशी अपनाओ’ का नारा बुलंद करने वाले भारतीय बाजारों में इसकी दखल से हमारे समाज के कुम्हार जातियों के लोगों की परंपरागत रोजगार पर खतरा मंडरा रहा है.पारंपरिक रुप से यह वर्ग सदियों से मिट्टी के बर्तन,खिलौने और नाना प्रकार की कलाकृतियां तथा उपयोगी वस्तुओं को बनाकर अपनी आजीविका का निर्वहन करते आया है।बेकार पडी मृदा को अपनी कला से जीवंत रुप प्रदान करने वाले मूर्तिकारों और कुम्हारों का यह वर्ग उपेक्षित है।यह उपेक्षा न सिर्फ सरकारी स्तर से है अपितु तथाकथित आधुनिकता को किसी भी कीमत पर अपनाने वाले नागरिकों द्वारा भी है।आखिर कब तक हम मिट्टी से बनी इन वस्तुओं से मुंह मोडेंगे?एक दिन हमें इसी मिट्टी में मिल जाना है।लेकिन हमारे छोटे-से प्रयास से हजारों लोगों के रोजी-रोटी का इंतजाम करने में मदद मिल सकती है।आइए इस बार कोशिश करें कि दीवाली पर यथासंभव मिट्टी के दीये ही खरीदें और ईको-फ्रेंडली दीवाली मनाएं.
▪सुधीर कुमार,
बीएचयू,वाराणसी
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