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बहुत साल पहले समाजशास्त्री आशीष नंदी ने ‘भारतीय राजनीति के लौह नियम’ को परिभाषित किया था।उनके अनुसार,एक चुनी हुई सरकार को मोहभंग होने की स्थिति तक पहुंचते पहुंचते डेढ साल लगता है।कुछ ऐसा ही हश्र केंद्र की मौजूदा एनडीए सरकार के साथ हुआ है।ठीक डेढ साल बाद लोगों का धैर्य जवाब देता दिख रहा है।पहले दिल्ली में सूपडा साफ और अब बिहार में राजनीतिक नाकामी यह बताने को काफी है कि राजनीतिक लफ्फाजी और बयानबाजी से मतदाताओं को रिझाने की बजाय सिर्फ और सिर्फ विकास की बातें की जाए।2017 में उत्तर प्रदेश का चुनाव क्या गुल खिलाएगी इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है लेकिन बिहार चुनाव परिणाम ने भाजपा को आत्ममंथन करने का मौका जरुर दे दिया है।जिस उम्मीद व आशा के साथ बीते लोकसभा चुनाव में जनता ने बहुमत की आंधी के साथ मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को सत्ताधारी बनाया था,उसपर पानी फिरता दिख रहा है।यूपीए सरकार के काल में महंगाई,घोटाला,भ्रष्टाचार आदि से त्रस्त होकर जनता ने एक विकल्प के रूप में भाजपा को देखा था,उस भरोसे को बरकरार रखने की कोशिश के बजाय उसे तोडा जा रहा है।भाजपा ने जिस नारे ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं’ को लेकर सत्ता हासिल की थी,उसे कहीं न कहीं वह भूलती जा रही है.18 महीने बीत गये लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा कुछ दिखा नहीं कि अच्छे दिन के लिए धैर्य भी रखा जाए।लोगों ने चर्चा करना भी शुरू कर दिया है कि सरकार का सारा समय तो घोषणा,कार्यक्रम व अभियान में ही बीत गया जबकि आलम यह है कि महंगाई से आम आदमी त्रस्त है।गरीबी,बेरोजगारी व पलायन की समस्या जस की तस है।ऐसी स्थिति में सरकार की कार्यप्रणाली में सवाल तो उठेंगे ही।अभी भी समय है।जनता के भरोसे को बहाल करने की कोशिश की जाए।देश में लोगों की विकास के प्रति भूख बढती ही जा रही है.देश का हर व्यक्ति विकास की गंगा में डुबकी लगाकर आगे बढने की इच्छा रखता है।कहीं न कहीं अब तक की हमारी सरकार जनता की इस आकांक्षा पर खरा उतरने में असफल साबित हुई है।कम से कम मोदी सरकार से ऐसी अपेक्षा नहीं थी।
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