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आरटीआई एक्टिविस्ट की हत्या क्यों?
इसे यूपीए सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रुप में हमेशा याद किया जाएगा कि 15 जून 2005 को पारित और भारतीय जनमानस को प्राप्त एक ऐतिहासिक अधिकार आरटीआई अर्थात सूचना का अधिकार नामक कानून उसी वर्ष 12 अक्टूबर से प्रभावी हुआ.सरकारी विभागों की पारदर्शिता और लोकतंत्र की विश्वसनीयता के आधार पर प्रभावी यह कानून विगत नौ वर्ष में कई उपलब्धियाँ कायम कर चुका है.दरअसल इस कानून की यह प्रमुख विशेषता है कि एक आम आदमी महज दस रुपये के मामूली खर्च से किसी भी प्रकार की सरकारी जानकारी को प्राप्त किया जा सकता है.इसी का परिणाम है कि ना सिर्फ शहरी बल्कि बड़ी संख्या में ग्रामीण लोगों ने जन-वितरणप्रणाली,मनरेगा के अंतर्गत तरह-तरह की जानकारियाँ,कार्यालयों में लंबित विभिन्न प्रकार के कागजातों आदि के बारे में सही जानकारी पायी है जो एक जागरुक समाज की तस्वीर पेश कर रहा है तो तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि सूचना दिलाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाने वाले हमारे ही बीच के कार्यकर्ताओं पर जान की बन आयी है.एक हालिया रिपोर्ट की मानें तो पिछले 6 महीने में लगभग ढाई सौ कार्यकर्ताओं को अपने जान से हाथ धोना पड़ा है.इससे और अधिक शर्मनाक बात हमारे लिए क्या हो सकती है.एक तरफ हम पारदर्शी लोकतंत्र की बात करते हैं.जनता को जनार्दन मानकर उन्हें सारी बातों से अवगत कराना चाहते हैं तो दूसरी तरफ इसकी मध्यस्थता में महत्वपूर्ण कड़ी निभाने वाले निर्दोष कार्यकर्ताओं को उसके जुझारुपन और ईमानदारी की सजा देते हैं.यूपीए सरकार के आकड़ों पर गौर करें तो कई करोड़ लोगों ने इस अधिकार का प्रयोग कर न्याय प्राप्त किया है.आज भीषहमारे देश की एक बड़ी आबादी अशिक्षित है.सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाओं और योजनाओं का लाभ वे नहीं ले पाते हैं,उसका फायदा तो समाज के बिचौलियें उठा लिया करते हैं.पीएमजीएसवाई,मनरेगा के अंतर्गत बनने वाले काम अत्यंत ही निम्नस्तरीय होने लगी है.यदि कोई जागरुक नागरिक या कार्यकर्ता इसकी पड़ताल करने के लिए इस कानून का प्रयोग करता है तो क्या उसकी सजा मौत है?गरीबों,दबे-कूचले व वंचित लोगों को आरटीआई के माध्यम से सहायता दिलाने वाले कार्यकर्ताओं की होने वाली मौत और सुरक्षा पर सरकार जरा भी गंभीर नहीं है.इस कानून से वे लोग ज्यादा बौखलाए हैं जो गरीबों को दी जाने वाली सरकारी सहायता पर पलते हैं साथ ही वे लोग जो जनता और सरकार की आँखों में धूल झोँक अपना काम निकालते हैं.कानून का किताबी ज्ञान जानना अलग बात है लेकिन उसे व्यवहारिक रुप देने के लिए सभी को एक्टिविस्ट की जरुरत पड़ेगी ही,फिर इसकी सजा उन लोगों को क्यों?हमारी नयी सरकार को इस पर अमल करना चाहिए…
सुधीर कुमार
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