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भारत में सरोगेसी व दोमुँहा समाज…
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भारत में किराये के कोख(सरोगेसी) का बाजार फलता-फूलता जा रहा है।आंकडों के लिहाज से भारत में सरोगेसी का बाजार लगभग 63 अरब रुपये से ज्यादा का है।यह नयी वैज्ञानिक तकनीक दिन-ब-दिन लोकप्रिय होती जा रही है।वहीं,दूसरी तरफ सरोगेट माताओं को काफी परेशानियों का सामना करना पडता है।उसे उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाती है।चूंकि किराये पर कोख धारण करने वाली महिलाएं निम्न आय वर्ग से संबंधित होती हैं इसलिए भी वह आर्थिक व शारीरिक शोषण का शिकार होती हैं।क्लिनिक से संबद्ध डाॅक्टर सरोगेसी विधि अपनाने वाले दंपतियों से अच्छी-खासी रकम तो वसूलते हैं लेकिन कष्ट सहने वाली औरतों को कम कीमत पर ही राजी कर लेते हैं।कई देशों में सरोगेट मां के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं,पर भारत में ऐसा कुछ नहीं है।हमारे समाज में तो संतान सुख से वंचित रहने वाली महिलाओं को सहयोग देने की बजाय उन्हें कलंकित,अपशगुन समझा जाता है तथा अनेक तरह से प्रताड़ित भी किया जाता है।आजादी के छह दशक बाद भी ऐसी निकृष्ट सोच हमारी रुढ़िवादी व दकियानूसी विचारधारा को परिलक्षित करता है।इस दृष्टि से सरोगेसी की नवीन वैज्ञानिक अवधारणा संतान सुख से वंचित महिलाओं की भावनात्मक कमी को दूर करने में बहुत हद सफलता प्राप्त की है।शहरों में इसका इस्तेमाल अधिक हो रहा है लेकिन शिक्षा,जागरुकता और पैसे के अभाव के कारण इसकी पहुंच हमारे गांवों तक नहीं हो पायी है।आलम यह है कि मां न बन पाने की स्थिति में गांवों में महिलाओं को शक की नजर से देखा जाता है.आज भी देश के अधिकांश गांवों में जिन महिलाओं के बच्चे नहीं होते हैं उन्हें चिकित्सक को दिखाने की बजाय घरवाले नीम-हकीम और ओझाओं के पास ले जाते हैं।यहां तक की घर में स्थापित देवी-देवताओं से मन्नतें मांगी जाती हैं,बलि भी चढाई जाती है.जाहिर है,इससे फायदा नहीं होता है।नतीजतन ससमय मेडिकल जांच की अनुपलब्धता से एक स्त्री ताउम्र निःसंतान होने के कारण अंदर ही अंदर आंसुओं के सैलाब में अपनी जिंदगी गुजार देती है।संतान की कमी स्त्रियों के मन को कचोटता रहता है।
▪सुधीर कुमार
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