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मुखिया जी से ऐसी उम्मीद तो ना थी!
सत्ता के विकेंद्रीकरण और ग्रामीण विकास को ध्यान में रखकर देश में पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की गयी.32 वर्ष बाद जब 2010 में झारखंड में पंचायत चुनाव की प्रतिध्वनि सुनाई दी तो उम्मीद जगी थी कि वर्षों से सुसुप्तावस्था में रहे मुद्दों पर एक बार फिर प्रकाश पडेगा.स्थानीय मुद्दों जैसे शुद्ध पेयजल,सडक,बिजली,सिंचाई तथा जनवितरणप्रणाली से जुडी परंपरागत समस्याओं का समाधान होगा और इस तरह कोटि-कोटि जन की आशाओं और आकांक्षाओं को नयी ताकत मिलेगी.इसी उम्मीद के साथ ग्रामीणों ने यह सोचकर मतदान किया था कि स्थानीय सत्ता-संचालन की जिम्मेदारी अपने समाज के भाई-बंधुओं को दे दी जाये तो गांवों के विकास की गति तेज हो जाएगी,क्योंकि वह हमारी समस्याओं से भलीभांति अवगत है.लेकिन हुआ इसके ठीक उलट.ठीक पांच वर्ष बाद इन नेताओं की बंगला,गाडी,संपत्ति व रुतबा आदि में वृद्धि तो हुई(हालांकि इससे हमें कोई मतलब भी नहीं है) लेकिन दुर्भाग्यवश,गांव व ग्रामीण उपेक्षित ही रह गए.जब सांसद और विधायकों की तरह हमारे मुखिया भी क्षेत्रीय मुद्दों से मुंह मोडने लगेंगे तो पंचायती राज व्यवस्था की प्रासंगिकता ही खत्म हो जाएगी.छह लाख से अधिक गांवों वाले इस राष्ट्र में जब गांव ही पिछडेपन की गर्त में समाए रहेंगे तो देश की स्थिति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है.एक बार फिर जब सूबे में पंचायत चुनाव का नगाढा बजा तो नेताओं की पदचाप सुनाई देने लगी.नेताओं के दिखावटी क्षमा याचना,प्रार्थना व आश्वासन के बीच आम मतदाता भ्रमित हैं.फिर भी,चुनाव से पहले मौजूदा मुखिया के कार्यों का मूल्यांकन करने के बाद तथा बिना किसी झांसे या बहकावे में आये बगैर सोच-समझ कर अपना वोट दें.हमारा यह प्रयास आगे आने वाले पांच सालों की बेहतरी की आधारशिला रखेंगी अन्यथा आने वाले पांच साल कष्टप्रद होंगे.
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