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घटते वन से खतरे में जीवन!

आहत हृदय
आहत हृदय
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घटते वन से खतरे में जीवन!

ब्रिटिश दैनिक ‘द गार्डियन’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट में मौसम विभाग ने कहा है कि वर्ष 2016 में गर्मी के अब तक के सारे रिकॉर्ड टूट जाऐंगे।मौजूदा समय में ही सौरमंडल के इस अद्वितीय ग्रह पर जलवायु की जो चिंतनीय स्थिति है,वह उक्त रिपोर्ट पर मुहर लगाने को काफी है।जलवायु परिवर्तन पर आज अंतर्राष्ट्रीय जगत चिंतित है।प्रतिवर्ष वैश्विक स्तर पर नाना प्रकार के सभा-सम्मेलन के आयोजन के बावजूद पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हम कच्छप गति से ही आगे बढ रहे हैं,जो चिंता का विषय है।हालांकि हम प्रतिवर्ष पर्यावरण दिवस जरुर मनाते हैं,उस दिन जब विश्व के हर कोने से पर्यावरण संरक्षण को लेकर आवाजें बुलंद होती हैं।नारे गुंजते हैं और पौधे भी लगाए जाते हैं।इतना ही नहीं नाना प्रकार के ढोंग कर अपने को पर्यावरण संरक्षक दिखाने की लोगों में होड़ लगी होती है।लेकिन दुर्भाग्य से सिर्फ एक दिन!दूसरे दिन लगाए गये पौधे मरेंगे या बचेंगे,देखने वाला कोई नहीं!ऐसे दिवसों का ढकोसला बंद होना चाहिए।क्यों हम पर्यावरण संरक्षण से संबद्ध इन दिवसों को मात्र कर्मकांड की तरह मनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं?पर्यावरण हमारे दैनिक जीवन को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करता है।अतः इसके संरक्षण के लिए पल-पल सचेत रहने की जरुरत है लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है।हमारा देश वन-संपदा और जैव-विविधता के मामले में आदिकाल से ही संपन्न रहा है।लेकिन समय बीतने के साथ-साथ औद्योगिक विकास की चाह(आवश्कता) ने पेड़-पौधों को वृहत् पैमाने पर क्षति पहुंचायी है।परिणामस्वरुप कई फलदार और औषधीय पौधे आज केवल किस्सों-कहानियों तक ही सीमित रह गये।वनों के ह्रास की प्रक्रिया पर्यावरण को सीधे तौर पर प्रभावित करती है,बावजूद इसके भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों के वन क्षेत्रों में तेजी से कमी आ रही है।राष्ट्रीय वन नीति के मुताबिक हमारे देश में 33 फीसदी वन की उपलब्धता पर्यावरण के लिए अनुकूल होती है जबकि हमारे यहां केवल 23 फीसदी वन शेष बचे हैं।कितनी विचित्र बात है कि वनों की गोद में पल्लवित व पुष्पित सभ्यता में आज वन ही उपेक्षित हो गये!वन के साथ हमारा अस्तित्व जुडा है,बावजूद इसके हम बेफिक्र हैं।दुर्भाग्य यह है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने की बजाय अपने क्रियाओं से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं।औद्योगिक विकास और मानवीय स्वार्थों की पूर्ति को प्रतिदिन लाखों पेड़-पौधों का गला घोंटा जा रहा है।कुछ वर्ष पहले पेडों की संख्या अधिक थी तो समय पर बारिश होती थी और गर्मी भी कम लगती थी लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है,पानी तरसा रहा है और गर्मी झुलसा रही है।औद्योगिक कूड़ा कचरा,सभी प्रकार के प्रदूषण,कार्बन उत्सर्जन,ग्रीनहाउस प्रभाव और ग्लोबल वार्मिंग से पूरा पर्यावरण दूषित हो गया है।संयुक्त राष्ट्र की जीएफआरए(ग्लोबल फाॅरेस्ट रिसोर्स असेसमेंट)2015 रिपोर्ट में यह पता चला कि वर्ष 1990 और 2015 के बीच कुल वनक्षेत्र में तीन प्रतिशत की कमी आई है।बढती आबादी और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के चक्कर में निर्दोष पेड-पौधों की बलि चढाई जा रही है।इसी का नतीजा है कि पर्यावरणीय चक्र बिल्कुल विच्छेद हो गया है।बढते वैश्विक ऊष्मण के कारण आसमान से आग बरस रहे हैं।मानसून की अनियमितता से देश में आंशिक सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी है।असमय दस्तक दे रहे इस आपदा का नकारात्मक असर कृषिगत उत्पादन व जनसंख्या के एक बडे हिस्से पर पडना निश्चित है।दूसरी तरफ,हमारी संवेदनहीनता की यह हद है कि हमने पृथ्वी को तो दूषित कर दिया।अब इसे स्वच्छ बनाने की बजाय मंगल जैसी अन्य ग्रहों पर जीवन खोजने को लालायित हैं।मनुष्यों की हठधर्मिता ने संपूर्ण पर्यावरणीय चक्र को पलट कर रख दिया है।नतीजतन न समय पर बारिश होती है और ना ही गर्मी और सर्दी ही आती है।सच तो यह है कि औद्योगिक विकास की बदलती परिभाषा मानव सभ्यता के अंत का अध्याय लिख रही है।लेकिन बेफ्रिकी के रथ पर सवार होकर हम अंधाधुंध विकास का गुणगान कर रहे हैं।ऐसे में व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर पौधे लगाने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी तभी जाकर जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियां मानव जाति के अनुकूल होंगी।मनुष्यों की बुद्धि जड़ हो चुकी है।हमारे पूर्वजों ने हमें कितना शुद्ध और स्वच्छ वातावरण दिया था।क्या हम आगे आने वाली पीढ़ियों को उसे स्थानांतरित कर पाएंगे?शायद नहीं!जरुरी यह है कि हम व्यक्तिगत स्तर पर पौधारोपण में बल दें और उसकी यथासंभव सुरक्षा करें।यह भविष्य के लिए आवश्यक है।

सुधीर कुमार

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