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3 दिसंबर,”विश्व निःशक्तता दिवस” पर विशेष

आहत हृदय
आहत हृदय
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निःशक्तजनो को सहयोग करें

प्रतिवर्ष 3 दिसंबर को ‘विश्व निःशक्तता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है.यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक मुहिम का हिस्सा है,जिसका उद्देश्य निःशक्तजनों को मानसिक रुप से सबल बनाना तथा अन्य लोगों में उनके प्रति सहयोग की भावना का विकास करना है।निःशक्तता मेडिकल कारणों की उपज है उसे किसी व्यक्ति की किस्मत के फल के रुप में नहीं देखना चाहिए.निःशक्त लोगों को मानसिक और शारीरिक सहयोग की जरुरत होती है।चूंकि,उनकी जिंदगी काफी दुख भरी होती है,इसलिए परिवार तथा समाज के लोगों से अपेक्षा की जाती है कि हरपल उनका संबल बनें और उनकी इच्छाओं को खुला आसमान मुहैया कराएं।उन्हें यथासंभव आगे बढने को प्रेरित किया जाना चाहिए।हमारे थोडे से प्रयास से उन्हें कुछ खास बनने में उन्हें देर न लगेगी।उन्हें यह अहसास दिलाना होगा कि वे ‘डिजेबल्ड’ नहीं हैं,’डिफेरेंटली एबेल्ड’ हैं।उन्हें संसाधन उपलब्ध कराया जाय तो वे कोयला को भी हीरा बना सकते हैं।समाज में आदमीयत,अपनत्व-भरा वातावरण मिले तो हम इतिहास रच देंगे और रचते आएं हैं।वैज्ञानिक व खगोलविद स्टीफन हाॅकिंग,धावक ऑस्कर पिस्टोरियस,मशहूर लेखिका हेलेन केलर जैसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है,जिन्होंने विकलांगता को कमजोरी नहीं बल्कि चुनौती के रुप में लिया और आज हम उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें याद करते हैं।यदि समाज में सहयोग का वातावरण बने,लोग किसी दूसरे की शारीरिक कमजोरी का मजाक न उडाये तो निश्चय ही आगे आने वाले दिनों में सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।दुखद यह है कि देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा निःशक्तजनों के साथ दोहरा मापदंड ही अपनाती है।ऐसा प्रदूषित सामाजिक माहौल निश्चय ही उन्हें तकलीफ देता होगा।सार्वजनिक स्थानों जैसे बस स्टॉपेज,अस्पताल,रेलवे स्टेशनों व अन्य सीढीनुमा जगहों पर मदद की उन्हें आवश्यकता होती है लेकिन दुर्भाग्यवश मदद के वास्ते कम ही हाथ उठते हैं।वहीं,जाने-अनजाने लोग शारीरिक कमी का मजाक उडाने से बाज नहीं आते हैं।निःशक्तजनों के प्रति मानसिकता बदलकर यथासंभव मदद करें ताकि लाखों लोगों का यह वर्ग देश में उपेक्षित न रहे।आज विकलांग लोगों को ताउम्र अपने परिवार पर आश्रित रहना पडता है।इस कारण वह या तो परिवार के लिए बोझ बन जाता है या उनकी इच्छाएं अकारण दबा दी जाती हैं।वहीं,दूसरी तरफ विकलांगों के लिए क्षमतानुसार कौशल प्रशिक्षण जैसी योजनाओं के ना होने से एक बडा हिस्सा ताउम्र बेरोजगार रह जाता है।अगर उन्हें शिक्षित कर सृजनात्मक कार्यों की ओर मोडा जाए तो वे भी राष्ट्रीय संपत्ति की वृद्धि में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं।इस तरह स्वावलंबी होने से वह अपने परिवार या आश्रितों पर बोझ नहीं बनेगा और इस तरह उसका भविष्य सुधर सकता है।

▪सुधीर कुमार

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