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टीआरपी की दौड़ मेँ संवेदनहीन ना हो पत्रकारिता!

आहत हृदय
आहत हृदय
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एक दृश्य की कल्पना कीजिए.एक छोटा सा बालक अपने घर के पास बने हुए बोरवेल में गलती से गिर जाता है.बच्चे के घरवालों का रो-रो कर बुरा हाल हो गया.खबर आग की तरह फैल गयी.देखते ही देखते शहर के मीडियाकर्मियों का जमावड़ा लगने लगा.बारी-बारी से मीडियाकर्मी बच्चे की रो रही माँ के पास जाकर एक ही प्रकार के सवाल पूछते हैं और उसे अपने कैमरे में कैद करते हैं.ऐसे समय में जब कोई व्यक्ति विपत्ति का अनुभव करता हो,तत्क्षण सवालों का गोला दागना पत्रकारिता का कैसा सिद्धांत है?यदि जख्मों में मलहम लगाना पत्रकारिता का सिद्धांत न हो तो कम से कम मानवता के नाते उनके जख्मों को मत कुरेदिये!हर किसी को पीड़ा होती है ऐसे दृश्यों को टेलीविजन स्क्रीन पर बार-बार देखकर.लोकतंत्र का चौथा स्तंभ समझा जाने वाला मीडिया आज अपने लक्ष्य से विमुख होता प्रतीत होता है.नदी में डूबते और सड़क पर तड़पते व्यक्ति के जीवन की त्वरित रक्षा करने के प्रयास नहीं,इन्हें तो उसे अपने कैमरों में कैद कर एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग न्यूज बनाने की जल्दी होती है.माना कि एक पत्रकार होने के नाते जिम्मेदारियों का बोझ होता है परंतु मानवता भी तो कोई चीज होती है.टीवी चैनलों में किसी तुच्छ विषय पर प्रतिदिन घंटो चलने वाली बहस,पत्रकारीय शैली में प्रतिदिन होता नैतिक ह्रास को इंगित कर रहा है.वाकई यह कहने में संकोच नहीं होगा कि टीआरपी बटोरने की होड़ और कारोबारिक दबावों के कारण मीडिया वर्ग अपने दायित्वों का पूर्णतया निर्वहन करने में असमर्थथा प्रकट कर रही है.मीडिया लोकतांत्रिक प्रणाली और जनता के बीच सेतु का काम करते हैं.उस सेतु की मजबूती के प्रण लिए जाएॅ.आज देश तमाम समस्याओं से घिरा हुआ है.लोकतंत्र के प्रथम तीन स्तंभों से अव्यवस्था की बु-सी आ रही है.समय है कि इसका चौथा और महत्वपूर्ण स्तंभ अपनी सार्थकता सिद्ध करे..

सुधीर कुमार

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