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आर्थिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुंचे विकसित देश सतत पोषणीय विकास को ठेंगा दिखाकर बेतहाशा कार्बन उत्सर्जन करते हैं और जलवायु सम्मेलनों में विकासशील देशों से कार्बन कटौती करने को कहते हैं तो बात गले नहीं उतरती.रिपोर्टो के आधार पर यह भी स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका और चीन संसार के दो बड़े प्रदूषक राष्ट्र हैं.अमेरिका प्रति व्यक्ति की दर से सलाना 16.6 टन जबकि चीन इसी दर से सलाना 7.4 टन कार्बन का उत्सर्जन करता है.इस मामले में विकासशील देश भी पाक्-साफ नहीं हैं.केवल भारत प्रति व्यक्ति की दर से सलाना 1.7 टन का कार्बन उत्सर्जन करता है.जबकि,विश्व की एक तिहाई से अधिक आबादी केवल जलावन के लिए जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग करती है.इसमें अधिकांश राष्ट्र अविकसित और विकासशील देशों से आते हैं.जीवाश्म ईंधनों के अधिक प्रयोग से निकलने वाले जहरीली गैसें हरितगृह प्रभाव में वृद्धि के माध्यम से पृथ्वी के औसत तापमान को बढा रही हैं और अंततः इस वैश्विक तपन का दुष्प्रभाव पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं पर पड़ रहा है.भारत में ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों के विकास की अपार संभावनाएं हैं,लेकिन कमजोर अर्थव्यवस्था और दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव की वजह से सौर,पवन,भूतापीय जैसे ऊर्जा के नवीकरणीय साधनों का पर्याप्त विकास नहीं हो सका है.प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 122 देशों का ‘अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन’ के रुप में आगे आना तथा सौर ऊर्जा के विकास का संकल्प वाकई सराहनीय कदम है.सौर ऊर्जा के प्रयोग से सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे.वहीं,देश का हर व्यक्ति पूरी जिम्मेदारी के साथ छोटी-छोटी बातों पर अमल कर जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है.यह बताने की नहीं बल्कि अमल में लाने की जरुरत है
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