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किशोर,अपराध और समाज!

आहत हृदय
आहत हृदय
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एक लोकतांत्रिक राष्ट्र,जहां स्वतंत्र न्यायपालिका है,वहां निर्भया कांड के दोषी नाबालिग(अब बालिग) की रिहाई पर लोगों का आवेश में आकर यह कहना कि ‘जुर्म जीत गया,कानून हार गया’,तर्कसंगत मालूम नहीं पडता।मालूम हो कि देश में कानून का शासन है और यह भावनाओं से नहीं चलता,अन्यथा इसकी प्रासंगिकता ही खत्म हो जाती।कानून के तहत सभी नागरिक समान हैं।सबके हितों की रक्षा करना न्यायालय का प्रमुख कर्तव्य है।जुवेनाइल जस्टिस कानून के पूर्व के प्रावधानों के मुताबिक दोषी की रिहाई होनी चाहिए थी,फिर हंगामा क्यों?सवाल उम्र का नहीं है।सवाल यह है कि बीते एक दशक में ऐसा क्या हुआ कि किशोरों में आपराधिक प्रवृत्तियां हावी हो गयी?राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2001 से 2011 के मध्य बाल अपराध में 170 फीसदी की बढोतरी हुई है।भारतीय किशोरों में आपराधिक प्रवृत्तियां बढती ही जा रही हैं।देशभर में आज 17 लाख किशोर विभिन्न आपराधिक मामलों में आरोपी हैं।सामाजिक भटकाव के कारण बडी संख्या में किशोर चोरी,हत्या,हत्या का प्रयास,दुष्कर्म जैसे अपराधों को अंजाम दे रहे हैं।इस समस्या के समाधान के लिए समाज को सोचना होगा।केवल जुवेनाइल एक्ट में संशोधन करने से बात नहीं बनेगी।किशोरों के मानसिक भटकाव के लिए हमारा समाज और विषाक्त सामाजिक माहौल बराबर का दोषी है।हमारा सामाजिक परिवेश दिनोंदिन बदलता जा रहा है।संयुक्त परिवार के विखंडन के कारण बच्चे परंपरागत पालन-पोषण से दूर हो गये हैं।आज के तथाकथित आधुनिक बच्चे अपने माता-पिता या दादा-दादी के पास जाकर बात करने या कहानी सुनने की बजाय सोशल मीडिया पर चैटिंग करना पसंद कर रहे हैं।कहीं न कहीं,इस विषैले सामाजिक परिवेश में छोटे-छोटे बच्चों का वास्तविक बचपन भी छिनता जा रहा है,जिसे शायद हम नजरअंदाज कर रहे हैं।अभिभावकों के संरक्षण के अभाव में कम उम्र में ही बच्चों को वीडियो गेम्स,टीवी,इंटरनेट,नशाखोरी और पोर्नोग्राफी की लत लग रही है.टीवी,सिनेमा और मोबाइल फोन की सुलभता,छोटी उम्र से ही किशोरों में भोगवाद,तनाव,ईर्ष्या और अवसाद की प्रवृतियों को जन्म दे रही है।बच्चे बहुत जल्द परिपक्व तो हो रहे हैं,लेकिन उन्हें आवश्यक संस्कार,मूल्य,नैतिकता तथा मानवता का ज्ञान नहीं मिल रहा।ऐसे में दोषी केवल किशोर ही नहीं है,बल्कि संबंधित माता-पिता व पूरा समाज दोषी है।नैतिक शिक्षा को एक विषय के रुप में पाठ्य पुस्तक में शामिल करने की चर्चाएँ तेज हैं,लेकिन क्या यह काफी है?क्या इसकी शुरुआत मानव जीवन के प्रथम पाठशाला यानी घर से नहीं की जानी चाहिए?

▪सुधीर कुमार

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