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बेजुबान जानवरों के प्रति दया दिखायें!

आहत हृदय
आहत हृदय
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उत्तराखंड में भाजपा के विरोध-प्रदर्शन के दौरान मसूरी के भाजपा विधायक गणेश जोशी द्वारा राज्य पुलिस के घोड़े ‘शक्तिमान’ पर कथित रुप से लाठी से बेरहम हमले ने बेजुबान जानवरों पर इंसानी अत्याचारों की ओर लोगों का ध्यान एक बार फिर खींचा है।चूंकि,शक्तिमान उत्तराखंड पुलिस का घोड़ा है,इसलिए उसे जबरदस्त मीडिया कवरेज मिली और आज उसका सफल इलाज हो सका तथा आरोपी विधायक जेल की सलाखों के अंदर पाश्चाताप कर रहा है।आए दिन,अपने आसपास जानवरों पर ऐसे अत्याचार कमोबेश हमें देखने को मिलते रहते हैं।चूंकि,इंसान जानवरों की भाषा व भावना से अनभिज्ञ होता है,इसलिए उसके दर्द को ना तो हम समझ पाते हैं और ना ही महसूस कर पाते हैं।हम बस बेजुबानों पर जुल्म ढाकर अपनी दबंगई दिखाना जानते हैं।भारत जैव-विविधता के मामले में आदिकाल से ही धनी रहा है।लेकिन,औद्योगीकरण और नगरीकरण के दुष्प्रभावों ने पशु-पक्षियों की कुछ प्रजातियों को विलुप्ति के कगार पर ला दिया है।बकायदा कुछ तो विलुप्त होकर इतिहास का हिस्सा बन गए हैं।इसलिए जो शेष हैं,उनके संरक्षण पर बल दिया जा रहा है।वनोन्मूलन और दावानल के साथ जंगलों में शिकार के बढ़ते चलन के बाद कुछ जानवरों व पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।उनका प्राकृतिक घर मानव ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए नष्ट कर दिया है।प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए उनका जीवित होना बेहद जरुरी है।पृथ्वी पर सभी जीव-जंतुओं का अपना महत्व है।ईश्वर ने सबों की रचना सोच-समझकर ही की है।कुछ ने,आहार-श्रृंखला के माध्यम से पारिस्थितिक तंत्र में संतुलन बनाए रखने में मदद की है,तो कुछ ने आर्थिक रुप से मानव की सहायता की है।इंसानों और जानवरों की दोस्ती का सिलसिला हमें सभ्यता के शुरुआती हड़प्पा काल से ही नजर आते हैं।हालांकि,महान दार्शनिक अरस्तु ने इंसानों को भी ‘सामाजिक प्राणी’ माना है।चूंकि,हमारे पास बुद्धि,विवेक और ज्ञान है,इसलिए हम जानवरों में खुद को श्रेष्ठ मानते हैं।लेकिन हैं तो एक जानवर ही।पशुओं की उपयोगिता को किसी भी दृष्टि से कम नहीं आंका जा सकता।आज,ग्रामीण क्षेत्रों में,पशुपालन रोजगार का एक सशक्त माध्यम बन गया है।इससे,ना सिर्फ परिवार के दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है,बल्कि आमदनी का भी यह एक बड़ा स्रोत है।भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही पालतु जानवरों को घर के एक सदस्य के रुप में देखा गया है।गांव से रोजगार एवं अन्य प्रकार की गतिविधियों के लिए लोगों के शहरों की ओर पलायन के बाद अब गाय व बकरी आदि पालना संभव नहीं है।इसके वाजिब कारण भी हैं।पहला,शहरों में चारागाह व जगह की कमी भी है,तो दूसरी तरफ इसके कारण व्यक्ति का स्टेटस भी नीचे गिर सकता है।ऐसे भी,शहरों में लोगों को मिलावटी दूध खरीदकर पीने की आदत(मजबूरी)सी हो गयी है।कितनी विडंबना की बात है कि,हम इंसानों के अधिकारों की मांग के लिए आवाज बुलंद करते रहते हैं।हमारे एक भी अधिकार का हनन होता है,तो विभिन्न स्तरों पर स्थापित मानवाधिकार आयोगों की हम शरण ले लेते हैं।कोई एक थप्पड़ मार देता है,तो इसका बदला लेने के लिए हम आगबबूला हो जाते हैं।स्वाभाविक है,मार खाने पर दर्द सबको महसूस होता है।लेकिन बेजुबान निर्दोष जानवरों का क्या?जिन्हें मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए पालता तो है,लेकिन गाहे-बगाहे उसे प्रताड़ित भी करता रहता है।विभिन्न पर्व-त्योहार,सफलता प्राप्ति व नववर्ष आगमन जैसे तमाम आयोजनों पर हम खुशियां मनाने के लिए छोटे से बड़े बेजुबान जानवरों के मांस का सेवन करते हैं।खाना खाते समय हमें कभी भी उस जानवर की याद नहीं आती,जो कुछ समय पहले तक प्रकृति में स्वच्छंद विचरण कर रहा था।विज्ञान के अनुसार,शाकाहारी भोजन खाने से मांसाहार की अपेक्षा अधिक ऊर्जा मिलती है,लेकिन हम हैं कि ‘गोमांस’ और ऊंट के मांस का सेवन करना अपना अधिकार समझते हैं।हमें यह भी समझना होगा कि बेजुबान जानवरों के प्रति दया दिखाना ही इंसानों की सच्ची इंसानियत है।यदि मानव संसार के सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है,तो श्रेष्ठता का आचरण भी व्यवहृत करना निहायत जरुरी है।

सुधीर कुमार

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