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भारत की राष्ट्रीय नदी गंगा के अस्तित्व की रक्षा को लेकर आज पूरा देश चिंतित है।गंगा नदी युगों से मां की तरह पूजनीय रही हैं।यह ना सिर्फ नदी है,बल्कि युगों से भारतीय सभ्यता-संस्कृति की पथ-प्रदर्शक भी रही हैं।उत्तरी मैदानों में निवास करने वाले करोड़ों लोगों के लिए तो यह उनकी जीवन-रेखा है।कृषि,उद्योग सहित कई अन्य व्यावसायिक गतिविधियों के लिए यह एक आधार प्रदान करता है,तो दूसरी तरफ इसके निर्मल जल का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है।आज भी हमारे घरों में रखा वर्षों पुराना गंगाजल शरीर में छिड़कने मात्र से शुद्धिकरण का आभास कराता है।तमाम गंदगियों के बावजूद लोग आज भी सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर इस पावन,निर्मल एवं बहुउद्देशीय जल की धारा में डूबकी लगाकर पापों से मुक्ति का एकमात्र सहारा खोजता है।यह बात अलग है कि व्यक्ति अगले गलत कामों को करने से पहले इसका स्मरण करना भूल जाता हो!
विज्ञान भी मानता है कि गंगा जल कई औषधीय गुणों से पूर्ण रहता है,जिसमें कई रोगों से लड़ने की अद्भूत क्षमता होती है।फिर,कोई भक्त पूर्ण विश्वास और आस्था के साथ ऐसे जल का पान करता है,तो निश्चय ही लाभ की प्राप्ति होती है।यहीं से,गंगा एक नदी ना रहकर मां समान हो जाती है।परंतु,समय के साथ औद्योगीकरण और नगरीकरण के दुष्प्रभावों के कारण आज यह जीवनदायिनी गंगे अपने अस्तित्व के साथ संघर्ष कर रही है।गंगा किनारे अवस्थित सैकड़ों कल-कारखानों से वृहत् मात्रा में निकलने वाले अशोधित विषैले कूड़े-कचरे से ना सिर्फ गंगा जल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है,बल्कि असंख्य जलीय जीवों पर विलुप्ति का खतरा मंडराता जा रहा है।इस तलह गंगा का प्राचीन गौरव भी लगातार क्षीण होता जा रहा है।आज स्वार्थयुक्त मानवीय क्रियाओं ने हर तरफ से नदियों को उपेक्षित कर रखा है।स्थिति ऐसी कि कई-कई जगहों में गंगा का जल नाली के पानी से भी बदतर हो गया है,जिसमें स्नान करने से पुण्य तो नहीं,कई बीमारियाँ जरुर मिल जाएंगी।ऐसे में,नमामी गंगे और गंगा बचाओ अभियान के नाम पर करोडों रुपये की राशि आवंटित कर देने मात्र से बात नहीं बनने वाली है।ये सारी योजनाएं जनसहभागिता के कारण उद्देश्य की प्राप्ति और समय से पूर्व दम तोड़ने को मजबूर हो जाती हैं।गंगा के निर्मलीकरण हेतु हम सबकी भागीदारी अनिवार्य है।व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़ अब हमें गंगा सहित अन्य प्रदूषित होती नदियों की रक्षा हेतु अपने क्रियाकलापों में संयमता बरतने की जरुरत है।देश के आज भी कुछ क्षेत्रों में नदियां ही पेयजल की मुख्य स्रोत है,ऐसे में प्रदूषित और सूखती नदियां कब तक उनका प्यास बुझा पाएंगी,यह चिंता व चिंतन का विषय है।राष्ट्रीय नदी हो या छोटी-बड़ी अन्य नदियां,नियमित देखभाल के अभाव में सभी का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है।इसी का नतीजा है कि नदियों में श्रेष्ठ मानी जाने वाली प्राचीन नदी सरस्वती आज विलीन होकर इतिहास बन गई है।ऐसी और भी नदियां,जिंदा रहकर मानव सृष्टि का साथ देने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रही हैं।यदि,हमारा नदियों के प्रति ऐसा ही सौतेला व्यवहार रहा,तो नदियों के क्रोध से सामना करने के लिए हमें तैयार रहना होगा।गौर करें तो हम पाऐंगे कि देश की अधिकांश नदियां प्रदूषण के मानक से ऊपर जा रही हैं।इसके जिम्मेवार हम मनुष्य और हमारा स्वार्थयुक्त व्यवहार ही है।निश्चय ही,इन नदियों का प्रदूषित जल न केवल जलीय जीवों के लिए प्राणघातक सिद्ध होगा,बल्कि यह भूजल के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर हमें अस्पताल की राह भी दिखाने वाली है।नदियों का सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है।इसने,संसार की तमाम नवजात सभ्यताओं का पालन-पोषण किया है।हर मानवीय आवश्यकताओं पर यथासंभव मदद भी की है।नदियों के साथ हमारा अस्तित्व जुड़ा है।यही कारण है कि हम भारतीय आज इसे मां के समान पूजनीय मान रहे हैं।दूसरी तरफ,संकटापन्न नदियों की सफाई की दिशा में सभी स्तरों पर दृष्टि का अभाव दिखता है।यदि हर व्यक्ति नदियों के भविष्य की चिंता करते हुए यथासंभव सहयोग करे,तो स्वच्छ नदियां हमारे पास फिर से हो सकती हैं।सिर्फ नदियों को साफ करना ही मुद्दा नहीं है,उसे गंदा न होने देना भी बड़ी चुनौती है।
सुधीर कुमार
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