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सरकार,उपलब्धियां और विज्ञापन!

आहत हृदय
आहत हृदय
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दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मोदी सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा है कि केवल दो साल की सालगिरह के कार्यक्रम पर केंद्र सरकार ने 1000 करोड़ से रुपये खर्च कर दिये।जबकि,ट्विटर पर उन्होंने अपनी सरकार का विज्ञापन खर्च प्रतिवर्ष 150 करोड़ से भी कम बताया।इस मुद्दे पर दोनों पार्टियों के बीच ट्विटर वार छिड़ा हुआ है।इससे पूर्व,भाजपा द्वारा जारी एक विज्ञापन में केजरीवाल के गोत्र को कथित तौर पर ‘उपद्रवी’ बताने पर,पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर कहा है कि वे चुनाव आयोग से इसकी शिकायत करेंगे और इस पर विज्ञापन पर तुरंत रोक लगाने की मांग करेंगे।भाजपा इस पर सफ़ाई देने में लगी हुई है।विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए आज हमारे नेताओं को विज्ञापन का सहारा लेना पड़ रहा है!दूसरी तरफ,सत्तासीन पार्टियों के लिए शासन की वर्षगांठ पर विज्ञापनों के जरिये अपनी सलाना ‘उपलब्धियों’ को बखान कर पैसे उड़ाने का रिवाज देश में काफी पुराना है।इसे मौजूदा दौर में केंद्र की मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश की अखिलेश तथा दिल्ली की केजरीवाल सरकार की गतिविधियों से भलीभांति समझा जा सकता है।गत,26 मई को बहुमतवाली भाजपानीत केंद्र सरकार ने अपने शासन के दो पूरे किये।इस अवसर पर अखबार,रेडियो,न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया तथा संचार के अन्य साधन ‘पूर्णतः’ मोदीमय होता देखा गया।कई दिनों तक समाचार-पत्र सरकार की उपलब्धियों से पटे रहे।इंडिया गेट पर बड़ी-बड़ी हस्तियों को बुलाकर ‘जरा मुस्कुरा दो’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया,जबकि बीजेपी मुख्यालय व क्षेत्रीय कार्यालयों से लेकर पूरे देश में कार्यकर्ताओं द्वारा जश्न का आयोजन किया गया।गरीबों की सरकार होने का ढिंढोरा पिटने वाली मोदी सरकार बताएं कि अपनी ‘उपलब्धियों’ की मार्केटिंग के लिए खर्च किये गये करोड़ों रुपये कहां से आये?सच तो यह है कि जनता की गाढ़ी कमाई फिजूल में नीलाम कर दी गयी।
इसी तरह,वर्ष 2015 में प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली में सरकार बनाने वाले आम आदमी पार्टी(आप) ने शासन के एक वर्ष पूरे होने पर उपलब्धियों के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी।इनकी उपलब्धियों को बखान करने वाले विज्ञापन न सिर्फ दिल्ली के अखबारों में प्रकाशित हुए,बल्कि आसपास के अनेक राज्यों में भी उसका गुणगान किया गया।आज भी,दिल्ली सरकार की उपलब्धियों को धारण किये हुए विज्ञापन ना सिर्फ दिल्ली के अखबारों में प्रकाशित हो रहे हैं,बल्कि दिल्ली के बाहर भी कई कई पेजों में छापे जा रहे हैं।केवल उपलब्धियां बखान के लिए जनता के खून-पसीने की कमाई झूठी वाहवाही लूटने के चक्कर में बर्बाद कर दी गई।दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने 11 मई तक 91 दिन की अवधि के दौरान प्रिंट मीडिया के विज्ञापन में करीब 15 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।सूचना के अधिकार के तहत अमन पंवार की याचिका पर मिली जानकारी में एक दिलचस्प बात यह पता चली है कि केजरीवाल सरकार से विज्ञापन छापने के लिए धन प्राप्त करने वाले प्रकाशनों में केरल,उत्तर प्रदेश,कर्नाटक,ओडिशा और तमिलनाडु समेत अन्य राज्यों के दैनिक अखबार शामिल हैं।बताते चलें कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने अपना प्रचार बजट 526 करोड़ सलाना रखा था और टीवी,अखबारों,रेडियो,सड़कों पर खूब इश्तेहार जारी किये गये थे।उस समय,उनकी खूब किरकिरी हुई थी।और आज,वे मोदी सरकार पर आरोप लगा रही है।समझ में नहीं आता है कि जनता की कमाई को हमारे राजनेता इतनी निर्दयता से कैसे उड़ा देते हैं?
इधर,अगले वर्ष(2017) अपना शासन समाप्त कर चुनाव का सामना करने जा रही यूपी की सपा सरकार के विकास की गाथा हर रोज प्रिंट,इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया में प्रकाशित व प्रचारित हो रही हैं।शायद,अखिलेश सरकार को अपनी सत्ता खोने का डर है,इसलिए उपलब्धियों को जनता के समक्ष रखने के लिए उन्हीं के पैसों का बेजा इस्तेमाल कर रही हैं।तथाकथित विकास की सारी कहानियां केवल विज्ञापनों में सिमट कर रह गई हैं।सरकार दिन-ब-दिन लंबी-चौड़ी घोषणाएं कर रही हैं और विज्ञापन प्रचारित करवा रही है,जबकि पार्टी के कार्यकर्ता सरकार की उपलब्धियों के गुणगान के लिए पार्टी फंड से बाइक और चारपहिया वाहनों का प्रयोग कर रही हैं।आखिर इतना पैसा आता कहां से है?
लेकिन,सवाल यह है कि देश में यह कैसी संस्कृति का विकास किया जा रहा है,जहां सरकार को अपने शासन की उपलब्धियां बखान करने के लिए विज्ञापनों का सहारा लेना पड़ रहा है।सरकार,अपने जिन कार्यों को उपलब्धियों के रुप में गिना रही हैं,वे निश्चय ही जनता के कल्याण के लिए किये गये होंगे;फिर,उसे उन्हीं जनता के पास संचार माध्यमों के द्वारा पहुंचाने का कोई औचित्य नजर नहीं आता!एक तरफ,चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है,तो दूसरी तरफ सत्ता प्राप्ति के बाद विज्ञापन के नाम पर करोड़ों रुपये फूंक दिये जाते हैं।पैसों का यह दुरुपयोग केवल जनता पर बोझ के सिवा कुछ नहीं है।हमारी सरकारें जितना खर्च हर वर्ष विज्ञापनों में करती है,उसका एक चौथाई भी सही तरीके से जनहित के काम कराने में लगा दे,तो विज्ञापनों की जरुरत ही नहीं पड़ती!हर वर्ष यह देखने में आता है कि सरकारें सालगिरह के नाम पर अपनी उपलब्धियों से सजे गानें बनवाती है,महीनों पोस्टर और बैनरबाजी होती है,संचार माध्यमों को भी हाइजेक कर लिया जाता है।इन सब क्रियाकलापों में फिजूल के करोड़ों रुपये खर्च कर दिये जाते हैं।जबकि,इसका कोई औचित्य ही नहीं है।
सवाल यह भी है कि जिन नागरिकों को केंद्र में रखकर सरकार विकास का धागा बुनती है।उन्हीं तक अपनी उपलब्धियों का गुनगान करने के लिए प्रचार माध्यमों का सहारा लेना पड़े,तो यह देश के लिए दुर्भाग्य से कम नहीं।अगर,वास्तव में सरकार की ये उपलब्धियां हैं,तो उसे भारी-भरकम राशि खर्च कर विज्ञापन के माध्यम से प्रचारित क्यों किया जाता है?जनहित से जुड़े विज्ञापनों की बात समझ में आती है,लेकिन केवल सरकार की उपलब्धियां बखान करने के लिए तथा चुनाव जीतने के शस्त्र के रुप में विज्ञापनों का बेजा इस्तेमाल समझ से परे है!सत्तासीन पार्टियां विज्ञापन के माध्यम से अपनी राजनीति चमकाती रही हैं।लेकिन,ऐसा करना सरकार में शामिल लोगों में आत्मविश्वास की कमी को व्यक्त करता है।सरकार को यह डर रहता है कि अगर अपनी ‘उपलब्धियों’ को जनता के पास न पहुंचाया जाय,तो उसका फायदा अगले चुनावों में नहीं मिलने वाला।जबकि,वास्तविकता यह है कि अगर वे उपलब्धियां होतीं,तो उसे जनता स्वयं महसूस करती।दुर्भाग्य यह है कि केंद्र सरकार से लेकर प्रायः सभी राज्य सरकारों का रवैया इसी तरह का रहता है।ऐसी संस्कृति देशहित में नहीं है!सालगिरह पर पार्टी के सभी छोटे-बड़े नेता सरकार की उपलब्धियों को गिनाने में लग जाते हैं।एक सवाल यह भी है कि सरकार को क्या अपने काम से ज्यादा टीवी और अखबारों के विज्ञापनों पर अधिक भरोसा है?

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सुधीर कुमार

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